विधायक सुशील सिंह ने राजनीति में कदम रखा तो उनकी छवि माफिया की थी। पिता के राजनीति में सक्रिय होने और पारिवारिक वहजों से सुशील सिंह के खिलाफ कई मुकदमे दर्ज हो चुके थे। जैसे जैसे उनका राजनीतिक जीवन आगे बढ़ता गया मुकदमों की संख्या भी बढ़ती गई। मुकदमे आपराधिक न होकर राजनीतिक होते चले गए। लेकिन न्याय के तराजू में सभी आरोप हल्के और विधायक का कद भारी पड़ा। सुशील सिंह एक एक कर सभी आरोपों से बाइज्जत बरी होे गए हैं। बृजेश सिंह के भतीजे और चुलबुल सिंह के पुत्र के इतर भी उनकी एक अलग पहचान है।
चंदौली। लगातार तीन दफा विधायक रहे सुशील सिंह आज भाजपा की राजनीति में बड़ा कद रखते हैं। लोकप्रियता के मामले में सबसे अव्वल। लेकिन उन्होंने राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में कई उतराव-चढ़ाव देखे। 2007 की मुलायम सरकार में उनपर एक लाख का इनाम तक घोषित कर दिया गया। जेल भी गए लेकिन हर दफा और मजबूत होकर जनता के बीच में आए। पहली दफा मात्र 26 वोटों के बेहद मामूली अंतर से धानापुर विधान सभा से चुनाव हारे। लेकिन इसके बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा। लगातार तीन दफा विधायक निर्वाचित होना जनता के बीच में उनकी गहरी पैठ और लोकप्रियता की बानगी है। सुशील सिंह का नाम एक बार फिर चर्चा में है। न्यायालय ने उन्हें सिपाही सर्वजीत यादव की हत्या के मामले में बरी कर दिया है। अब विधायक के खिलाफ कोई भी मुकदमा विचाराधीन नहीं है।
1995 में दर्ज हुआ पहला मुकदमा
विधायक सुशील सिंह बताते हैं कि 1995 में मारपीट का पहला मुकदमा दर्ज हुआ। यह वह समय था जब वह पढ़ाई के बाद अपने पिता का हाथ बंटाने कारोबार में उतरे थे। बस में मारपीट को लेकर पहली दफा उनका नाम पुलिस के रजिस्टर में दर्ज हुआ। इसके बाद 1997 में जब पिता चुलबुल सिंह एमएलसी बन चुके थे उस दौरान सपा और भाजपा के रसूखदार लोगों के बीच वर्चस्व् की लड़ाई में सुशील सिंह को भी लपेट दिया गया और एक और मुकदमा उनके नाम से दर्ज हो गया। 2002 की बसपा सरकार में भी उनके खिलाफ कई मुकदमे दर्ज हुए। 2007 में मुलायम सिंह की सरकार में उनके खिलाफ एक लाख का इनाम घोषित कर दिया गया। विधायक बताते हैं कि राजनीतिक द्वेष वश सीधे लखनऊ से इनाम घोषित कराया गया। तब उन्हें पता चला कि उनकी हत्या का षणयंत्र रचा जा रहा है, जिसके चलते वे कुछ समय के लिए भूमिगत हो गए। 2007 में ही बसपा ने उन्हें विधान सभा का टिकट दिया। जनता ने उन्हें विधायक बनाकर विधान सभा भेज दिया। इसके बाद 2009 के लोक सभा चुनाव में पार्टी से बगावत कर वाराणसी में बसपा उम्मीदवार मुख्तार अंसारी के खिलाफ डा. मुरली मनोहर जोशी का समर्थन किया। जोशी चुनाव तो जीत गए लेकिन बसपा ने सुशील सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया और कई मुकदमे भी लाद दिए। लेकिन विधायक ने बसपा के सामने घुटने नहीं टेके। 2012 के चुनाव में जब किसी भी दल में बात नहीं बनी तो निर्दल ही सकलडीहा विधान सभा सो ताल ठोक दी। यहां उनके सामने प्रतिद्वंदी के रूप में एक बार फिर सपा के प्रभुनारायण यादव थे। मुकाबला कठिन था लेकिन सुशील सिंह सपा प्रत्याशी पर भारी पड़े और लगातार दूसरी दफा विधान सभा पहुंचे। 2017 चुनाव से पहले भाजपा का दामन थाम लिया और सैयदराजा से चुनाव जीतकर विधान सभा में हैट्रिक लगाई।
2005 में अन्नू त्रिपाठी, विनीत सिंह और डाक्टर की लड़ाई में मेरा नाम बेवजह घसीटा गया। कोर्ट से न्याय मिला। अब मेरे खिलाफ एक भी मुकदमा नहीं है। जो भी मुकदमे दर्ज हुए सब राजनीतिक थे। द्वेष वश किए गए मुकदमे थे। लेकिन मैंने न तो सपा ना ही बसपा सरकार के सामने घुटने टेके। जनता सब जानती थी और उसने मुझे कभी निराश नहीं किया। भाजपा का सच्चा सिपाही हूं और रहूंगा। – विधायक सुशील सिंह