संवाददाता: कार्तिकेय पाण्डेय
चंदौली। चकिया से आगे बढ़ते हुए नौगढ़ की तरफ आएंगे तो देखेंगे कि यहां जिंदगी कितनी मुश्किल है। लकड़ी पर भोजन और चुंआड़ का पानी पीकर जीवन-यापन करने वाले सैकड़ों परिवार आसानी से मिल जाएंगे। चकिया विधान सभा को सुरक्षित करने का उद्देश्य भी यही था कि दलित नेताओं के हाथ में बागडोर आएगी तो अनुसूचित जाति और जनजाति का उत्थान हो सकेगा। लेकिन स्वाजातीय नेता तो अपने ही वर्ग के लोगों के लिए भस्मासुर बन गए। किसी पर वन विभाग की जमीन कब्जा करने का आरोप लगा तो किसी पर गरीबों की जमीन हड़पने का। खुद सत्ता की मलाई चाटते-चाटते अपना उत्थान कर गए और दलितों को जस का तस छोड़ दिया।
दलितों की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए चकिया विधानसभा को सुरक्षित किया गया। तब से चकिया का जनप्रतिनिधि दलित ही चुना जा रहा है। लेकिन दुर्भाग्य यह कि आज तक चकिया क्षेत्र खासकर नौगढ़ के दलितों का न तो आर्थिक ना ही समाजिक उत्थान हुआ। आज भी अधिकांश दलित आबादी मजदूरी और जंगल की जलावनी लकड़ियों पर निर्भर है। दलितों की पीड़ा को खुद उनकी जुबानी सुनें तो पता चल जाएगा कि उनके भीतर चकिया विधानसभा से चुने गए जनप्रतिनिधियों को लेकर कितना गुस्सा और आक्रोश भरा है। नक्सल प्रभावित नौगढ़ इलाके के ग्रामीणों का कहना है कि जनप्रतिनिधि वोट मांगने तो आते हैं। लेकिन जब चुनाव बाद हमें उनकी जरूरत होती है तो गायब हो जाते हैं। इनकी जरूरत नौगढ़ के सुदूरवर्ती पहाड़ों पर बसे गांव के ग्रामीणों को होती है तो ये लखनऊ की सरकारी कोठियों में आराम करते हैं। यदि इनकी मंशा काम करने की होती तो आज नौगढ़ और चकिया क्षेत्र के गांव खुशहाल होते। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज भी अधिकांश गांवों में जाने के लिए मुकम्मल रास्ता तक नहीं है। विकास की सच्चाई को जाननी है की बारिश के दिनों में नौगढ़ की पहाड़ियों पर बसे गावों में चले आइए। यहां वाहन तो छोड़िए पैदल चलकर गांव तक पहुंच पाना भी मुश्किल भरा कार्य है। गरीबों का कहना है कि चकिया विधानसभा क्षेत्र को सुरक्षित करने का उद्देश्य समझ से परे है। उनका कहना है कि दलित नागरिकों के उत्थान के लिए बाबा साहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जैसे उम्दा व्यक्ति व्यक्ति की जरूरत है।